दिलों में समा नही सकती...













लबों पे रूकती, दिलों में समां नही सकती 
वो एक बात जो लफ़्ज़ों में आ नही सकती 
जो दिल में हो नज़र-ए-ग़म तो अश्क पानी है 
के आग खाक को कुंदन बना नही सकती 
यकीन, गुमान से बाहर तो हो नही सकता 
नज़र ख्याल से आगे तो जा नही सकती 
दिलों की रम्ज़ फ़क़त एहल-ए-दिल जानते हैं 
तेरी समझ में मेरी बात आ नही सकती 
ये सौज-ए-इश्क तो गूंगे का ख्वाब है जैसे 
मेरी जुबां मेरी हालात बता नही सकती 
सिमट रही है मेरे बाजुओं के हलके में 
ह्या के बोझ से पलकें उठा नही सकती 
जो कह रहा है सुलगता हुआ बदन उस का 
बता भी पाती नही, और छुपा नही सकती 
एक ऐसे हिजर की आतिश है मेरे दिल में जैसे 
किसी विशाल की बारिश बुझा नही सकती 
तो जो भी होना है अमजद यहीं पे होना है 
ज़मीं मदार से बाहर तो जा नही सकती 
                                           :- अमज़द इस्लाम अमजद 

मेरी चाहत का है महावर ये नगर जैसा भी है....!

जिस तरह की हैं ये दीवारें ये दर जैसा भी है
सर छिपाने को मयस्सर तो है घर जैसा भी है
उस को मुझसे मुझको उस से निस्बतें हैं बेशुमार
मेरी चाहत का है महावर ये नगर जैसा भी है
चल पड़ा हूँ शौक़-ए-बेपरवाह को मुरशद मान कर
रास्ता परपेच है या पुर्खतर जैसा भी है
सब गंवारा है थकन दुखन सारी चुभन
एक खुशबू के लिए है ये सफ़र जैसा भी है
वो तो है मखसूस इक तेरी मोहब्बत के लिए
तेरा 'अनवर' बाहुनर या बेहुनर जैसा भी है

Poet of the Poem / Ghazal or Nazam :Anwar Masood

जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है ! Jahan ko Apni Tabahi ka Intzar Sa Hai.













कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है
मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है
सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिक़-ए-कोनैन शर्मसार सा है
तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है
सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है
जिसे पुकारिए मिलता है इस खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है
हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरे मज़ार सा है
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है !!
                                                  ( कैफ़ी आजमी )

क्या कोई मंजिल मेरा मुक़द्दर है या यही मेरी अधूरी कहानी है | SketchyHeart














एक मोहब्बत है और उसकी एक निशानी है 
एक दिल है जैसे कोई हवेली पुरानी है 

सफ़र रात का है और रात भी तूफानी है 

समन्दर ही समन्दर है कश्ती भी डूब जानी है 

इब्तेदा-ए-इश्क से इन्तहा-ए-इश्क तक 

मैं ही था बेवफा और मैंने ही वफ़ा निभानी है 

मैं लौट आया हूँ मंजिल को देखकर 

यहाँ तो यादों की वीरानी ही वीरानी है 

ये इंतजार ख़त्म क्यों नही होता किससे पूछूँ

 क्या कोई मंजिल मेरा मुक़द्दर है या यही मेरी अधूरी कहानी है  

हर तरफ आप किस्सा आप जहाँ से सुनिए


चाँद से फूल से या मेरी जुबान से सुनिए
हर तरफ आप किस्सा जहां से सुनिए

सबको आता है दुनिया को सता कर जीना
ज़िन्दगी क्या मुहब्बत के दुआ से सुनिए

मेरी आवाज़ पर्दा मेरे चेहरे का
मैं हूँ खामोश जहाँ मुझको वहाँ से सुनिए

क्या जरुरी है कि हर पर्दा उठाया जाये
मेरे हालात अपने मुकाम से सुनिए
                                                                                                                                               - Nida Fazil

चाँद सितारों से क्या पुछु कब दिन मेरे फिरते हैं | Chand Sitaron Se Kya Puchhu Kab Din Mere Firte Hain













चाँद सितारों से क्या पूछूँ कब दिन मेरे फिरते हैं
वो तो बेचारे खुद हैं भिखारी दर-दर फिरते हैं

जिन गलियों में हमने सुख के सेज पे रातें काटी थी
उन गलियों में व्याकुल होकर साँझ सवेरे फिरते हैं

रूप-स्वरुप के जोत जगाना इन नगरी में जोखिम है
चारो खुंट बगुले बनकर घोर अँधेरे फिरते हैं

जिन के शाम-बदन साये में मेरा मन सुस्ताया था
अब तक आँखों के आगे वो बाल घनेरे फिरते हैं

कोई हमे भी ये समझा दो उन पर दिल क्यों रीझ गया
तीखी चितवन बनके चाब वाले बहुतेरे फिरते हैं

इस नगरी में बाग और वन की लीला न्यारी है
पंछी अपने सर पे उठाकर अपने बसेरे फिरते हैं

लोग तो दामन सी लेते हैं जैसे हो जी लेते हैं
"आबिद" हम दीवाने हैं जो बाल बिखेरे फिरते हैं
                                   - आबिद अली आबिद

कैसे अब उसके बिना वक़्त गुज़ारा जाये ! | Kaise Ab Uske Bina Waqt Guzara Jaye




शाम के सांवले चेहरे को निखारा जाये 
क्यों न सागर से कोई चाँद उभारा जाये 
रास आया नही तस्कीन का साहिल कोई 
फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाये 
मेहरबां तेरी नजर, तेरी आदाएं क़ातिल 
तुझको किस नाम से ऐ दोस्त पुकारा जाये 
मुझको डर है तेरे वादे पर भरोसा करके 
मुफ्त में ये दिल-ए-खुशफ़हम ना मारा जाये 
जिसके दम से तेरे दिन-रात दरख्शां थे "कातिल"
कैसे अब उसके बिना वक़्त गुज़ारा जाये 
                                                            कातिल शिफ़ाई

मुझको यकीन है सच कहती थी जो भी अम्मी कहती थीं | Mujhko Yakin Hai Sach Sahti thin Jo Bhi Ammi Kahti thin - Javed Akhtar












मुझको यकीन है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं 
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं 
इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया 
इक वो दिन जब पेड़ के साखें बोझ हमारा सहती थीं 
इक ये दिन जब लाखों ग़म और अकाल पड़ा है आँशु का 
इक वो दिन जब ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं 
इक ये दिन सड़के रूठी - रूठी लगती हैं 
इक वो दिन जब "आओ खेलें" सारी गलियाँ कहती थीं 
इक ये दिन जब जगी रातें दीवारों को ताकती हैं 
इक वो दिन जब शाखों के भी पलकें बोझल रहती थीं 
इक ये दिन जब ज़हां में सारी अय्यारी के बातें हैं 
इक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं 
इक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामान रहता है 
इक वो घर जिसमे मेरी बूढी नानी रहती थीं. 

कोई हमसे पूछे सावन का महीना क्या है | Koi Humse Puchhe Sawan Ka Mahina Kya Hai


जीने वालों से पूछते हो जीने का सबब 
मरने वाले से जरा पूछो जीना क्या है 
बरसती  रहती  हैं उनपर बूंदों की लड़ियाँ सदा 
कोई हमसे पूछे सावन का महीना क्या है 

दमकते रेत पर चल कर पहुचे जो तलाब तक 
हाथ लगाते ही पानी जैसे सूख सा गया 
उन्हें क्या पता जिन्हें मिले हैं जाम सुराही से 
कोई हमसे पूछे मेहनत का पसीना क्या है 

महफिलों में अक्सर कहते हैं सब 
दिल-ए-नाशाद ना बयां करो अपना 
करें ना हमपर रहम मगर 
कोई हमसे पूछे अश्कों को पीना क्या है ?

साँसे हैं तब तक एक मुलाक़ात कर लो 
कुछ नही तो बस ये सवालात कर लो 
चले जाएँगे जब तक कौन बतलाएँगे तुम्हे 
दिल के जख्मों को आँखों से सीना क्या है ?

मेरी आरज़ू | Meri Aarzoo




कोई रात मेरे आशना, मुझे यूँ भी तो नशीब हो
न रहे ख्याल लिबास का, वो इतना मेरे करीब हो 

बदन की गर्म आंच से, मेरी आरजू को आग दे 
मेरा जोश बहक उठे, मेरा हाल भी अजीब हो 

तेरे चाशनी वजूद का सारा रस मैं चुरा लूँ
फिर तू ही मेरा मर्ज़ हो, और तू ही मेरा तबीब हो

जब भी मिलते हो...!! Jab bhi milte ho


जब भी मिलते हो..
उदासी की वजह दे जाते हो.

मेरे जज्बातों को...
ये कैसी हवा दे जाते हो.

ना चाहते हुए भी..
तेरे दर पर ले जाते हैं कदम.

इक तुम हो कि... 
मिलकर भी नही मिलते हो

सितम की हद भी...
सितमगढ़ लांघ जाते हो.

बेइन्तेहाँ दर्द देकर...
रोने भी नही देते हो.

ये तेरी कैसी चाहत...
कि चाहकर भी नही चाहते हो.

हम टूट भी जाते हैं तो चर्चा नही करते !


हम टूट भी जातें हैं तो चर्चा नही करते, 
दुःख दर्द भी सहते हैं तमाशा नही करते. 

हम अपने मफ़द की तकमील की खातिर, 
हर शख्स के जज्बात से खेला नही करते. 

हमको कोई गिला है तो बस अपने दिल से है, 
औरों पे हम इलज़ाम तराशा नही करते. 

मतलब परस्ती के जो आदि नही होते, 
वो हाथ मिला के कभी छोड़ा नही करते. 

कुछ इस तरह के लोग भी मिल जाते हैं जहाँ में, 
जो दुवाएं तो बहुत करते हैं मगर निभाया नही करते. 



चाहत की राह में बिखरे अरमान बहुत हैं 
हम उसकी याद से परेशान बहुत हैं 
वो हर बार दिल तोड़ता है ये कहकर दिल तोड़ देता है 
कि मेरी उम्मीदों की दुनिया में अभी मुकाम बहुत हैं 

पागल हुए जो हम तो उल्फत उसे भी थी 
चाहा जो हम ने उस को तो चाहत उसे भी थी 
उसको ना भूल पाएँगे वो जानता था 
और हर बात भूल जाने की आदत उसे भी थी 




सभी को सबकुछ नही मिलता, 
नदी के हर लहर को साहिल नही मिलता, 
ये दिलवालों की दुनिया है अजीब, 
किसी से दिल नही मिलता तो कोई दिल से नही मिलता !!





आये है बेकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब,
किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद !!




दिल किसी और ना हो पाया...
आरज़ू मेरी आज भी तुम हो...
हम इश्क के उस मुकाम पर खड़े हैं,
जहाँ दिल किसी और को चाहे तो गुनाह लगता है !!
ये जो नज़रों से तुम मेरे दिल को निढाल करते हो,
करते तो ज़ुल्म हो साहिब ! मगर कमाल करते हो !!
तुझको देखा फिर उसको ना देखा 
चाँद कहता ही रहा मैं चाँद हूँ, मैं चाँद हूँ...
हैरान हूँ तुम को मस्जिद में देख के ग़ालिब 
ऐसा भी क्या हुआ के खुदा याद आ गया !!

और क्या वजह चाहिए मुझको जश्न मनाने की !!

















आब है शराब है और उम्मीद उसके आने की 
क्या और वजह चाहिए मुझको  जश्न मनाने की 

हर घड़ी वो मेरा इम्तहान लेता है 

आज बारी है मेरी  उनको आज़माने की 

ना बहाओ अश्कों को को कि ये कम पड़ जाएंगे 

ये तो बस शुरुआत है मेरे ग़म के फ़साने की  

यही की थी मोहब्बत के सबक की इब्तदा मैंने !!














यही की थी मोहब्बत के सबक़ की इब्तदा मैंने,
यही की जुर्रत-ए-इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दा मैंने,
यहीं देखे थे इश्क-ए-नाज़-ओ-अंदाज़-ए-हया मैंने,
यहीं पहले सुनी थी दिल धड़कने की सदा मैंने,
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी.

दिलों में इज्दहम-ए-आरज़ू लब बंद रहते थे,
नज़र से गुफ्तगू होती थी, दम उल्फ़त के भरते थे,
ना माथे पर सिकन होती , ना जब तेवर बदलते थे,
खुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे,
यही खेतो में पानी के किनारे याद है अब भी.

वो क्या आता के गया दौर में जाम-ए-शराब आता,
वो क्या आता रंगीली रागिनी रंगीन रबाब आता,
मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगीन सहाब आता, 
लबों के मय पिलाने झूमता मस्त-ए-शबाब आता, 
यहीं खेतों में पानी के किनारों याद है अब भी. 

हया के बोझ से जब हर क़दम पर लगाज़िशें होतीं, 
फजां में मुन्तसर रंगीन बदन के लाराज़िशें होतीं, 
रबाब-ए-दिल के तारों में मुसलसिल जुम्बिशें होतीं, 
खिफा-ए-राज़ के पुर्लुफ्त बहम कोशिशें होती, 
यही खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी, 

बाला-ए-फ़िक्र-ए-फर्दा हम से कोसों दूर होती थी, 
सुरूर-ए-सरमदी से जिंदगी मामूर होती थी, 
हमारी खिलवत-ए-मासूम रश्क-ए-तुर होती थी, 
मलक झुला झूलते थे ग़ज़ल-ख्वान हुर होती थी, 
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी. 

ना वो खेत बदली हैं न वो आब-ए-रवां बागी, 
मगर उस ऐश-ए-रफ्ता का है इक धुंधला निशान बागी. 
Poet of the Poem/Ghazal or Nazam: Makhdoom Mohiuddin

ये कैसी मज़बूरी है...!!















आंसू हो कर भी हँसाने की ये कैसी मज़बूरी है 
अपने मुख को धक् लेने की ये कैसी मज़बूरी है 
कल तक ये अंशुमन था मेरा की जीवन मुश्किल है पर 
मर कर भी जीते रहने की या कैसी मज़बूरी है 
महफ़िल में भी एक तन्हाई, ये कैसी मज़बूरी है 
हर एहसास में रुसवाई, ये कैसी मज़बूरी है 
भोर हुए मैंने खुद से जुझू, और संध्या को ये सोचूं 
दिल में तू है अब भी समाई, ये कैसी मज़बूरी है 
शमा तले एक घना अँधेरा, ये कैसी मज़बूरी है 
खोजे मन एक नया सवेरा, ये कैसी मज़बूरी है 
कैसा है ये दाव लगाया दिल ने अब इस बाज़ी में 
मात भी मेरी, हार भी मेरी, ये कैसी मज़बूरी है 

जाने ये जिन्दगी ले जाएगी कहाँ....!!!


















ले जाएगी ये राह कहाँ वो मंजिलें अपनी 
अनजाने, अनदेखे रास्तों से गुज़र रही है ज़िन्दगी 

ये कशमकश का सिलसिला ये उम्मीदों के जलते दिए 
अंधेरों को हटा कर रौशनी की दे सहर ऐ ज़िन्दगी 

मुस्कुराहटों के दरमियाँ क्यूँ भीगी सी है ज़िन्दगी 
सूनी आँखों के अश्कों को जुगनूँ बना दे ज़िन्दगी 

नींद से खाली रातें, बोझिल से हैं दिन 
सुकून के चार पल हमको अता कर दे ऐ ज़िन्दगी

कभी इंसान सही या गलत नही होता.....














कभी इंसान सही या गलत नही होता,
एक नज़रिया उसे सही या गलत बनाता है,
कोई देखता है कीचड़ में कमल का फूल,
तो किसी को चाँद में भी दाग नज़र आता है !!

किसी की बेवफाई का ग़म क्या करना,
वक़्त तो अक्सर बड़े-बड़े को झुकता है,
बदल जाए ना क्यूँ इंसान की फ़ितरत,
साल भर में चार बार मौसम भी बदल जाता है !!

कभी इनकार का सच कडवा लगता है,
और कभी झूठी हमदर्दी भी प्यारी लगती है,
पर क्यूँ इसपर भी नाराज़ होना,
ये तो अपने मन की मजबूरी होती है !!

रंग, रूप और दौलत का खेल भी अजीब होता है,
खुशियाँ खरीद नही सकता, ग़म बेच नही पाता है,
पर फिर भी कैसी आज़माइश है दुनिया की,
जो समझ गया वो अकेला, जो नहीं वो महफ़िल में होता है !!

सुन लो मेरी बात कहीं से आ जाओ.....












तन्हा है मेरी जात कहीं से आ जाओ 
सुन लो मेरी बात कहीं से आ जाओ 
दुश्मन बाज़ी जीत रहा है चुपके से 
होने को है मात कहीं से आ जाओ 
कच्ची इटें और इमारत गेरे की 
और उसपर बरसात कहीं से आ जाओ 
दिल की बस्ती पर है खौफ अंधेरों का 
हो जाये न रात कहीं से आ जाओ 
कच्ची उमरें उस पर ख्वाब मोहब्बत के 
क्या क्या हैं ज़ज्बात कहीं से आ जाओ 
आँखे रास्ता देख रही हैं मुद्दत से 
गर्दिश में हैं हालात कहीं से आ जाओ 
मौसम मौसम लोग बदलते हैं "ख्वाहिश"
दिल पर हैं सदमात कहीं से आ जाओ.… 

आरज़ू थी तेरी बाँहों में दम निकले....









आरज़ू थी तेरी बाँहों में दम निकले,
कसूर तेरा नही बदनसीब हम निकले. 
जहाँ भी जाये खुश रहे तू सदा, 
दिल से मेरे दुआ सदा यही निकले. 
मेरे होठों की हंसी तेरे होंठो से निकले, 
तेरे ग़म का दरिया मेरे आँखों से निकले. 
ये जिंदगी तुम्हारी सदा हंसती हुई निकले, 
अगर चाहे तो हमे रुलाती हुई निकले. 
अगर जिंदगी में कभी जीना पड़े तेरे बिन, 
तेरी डोली से पहले अर्थी मेरी निकले. 
आरज़ू थी तेरी बाँहों में दम निकले, 
कसूर तेरा नही बदनसीब हम निकले.

ये तूने क्या किया है !











है हसरतों की ये ख्वाइश, या खुदा की है नुमाइश 
जो आजकल गुलज़ार वीरान हुआ है 
जो होता है वो अच्छे के लिए होता है अगर 
तो क्यूँ मैं मानना ना चाहूँ, कि जो हुआ है वो भला हुआ है !

कभी सोचता हूँ, और चौंक जाता हूँ ,
की ये जो हुआ, वो आखिर क्या हुआ है ?
बदलनी ही थी किस्मत को राह अगर,
तो वो क्यों चुनी जिसमे तू शामिल ना हुआ है ?

रात दिन, दिन रात, एक ही सवाल खाए है मुझे,
कि किस खता से तू रुसवा हुआ है ?
तुझे बचाने की जरुरत मेरी इतनी बदगुमान थी अगर,
तो क्यूँ इस रंजिश में मेरा ही दिल क़ुर्बान हुआ है ?

क्या करूँ, कैसे कहूँ, कि तेरी नादानी का ये कैसा वाक़िआ है,
कि जब खुलेंगे आँखें तेरी, तो तुझे लगेगा आइना भी दुश्वार हुआ है,
और मिला सके उस वक़्त तू खुद के नजर अगर,
तो याद करके इस पल को सोचना, कि तूने ये क्या किया है !

मगर जब याद आएंगी.....


कभी जो हम नहीं होंगे
कहो किस को बताओगे
वो अपनी उल्झने सारी
वो बेचैनि में डूबे पल्
वो आँखों में छुपे आन्शु
किसे फिर तुम दिखाओगे
बहुत बेचैन् होन्गे तुम
बहुत तनहा रह जाओगे
अभी भी तुम नहीं समझे
हमारी अनकही बातें
बहुत तुमको रुलाएन्गी
बहुत चाहोगे फिर भी तुम
हमे ना ढुन्ढ् पाओगे
कभी जो हम नहीं होंगे
कहो किस को बताओ

सर झुकाने की आदत नही है...


सर झुकाने की आदत नही है
आँशु बहाने की आदत नही है

हम खो गए तो पछताओगे बहुत
हमारी लौट के आने की आदत नही है

तेरे दर पे मोहब्बत के सवाली बन जाते
लेकिन हाथ फ़ैलाने की आदत नही है

तेरी यादें अज़ीज़ हैं बहुत
मगर वक़्त गवांने की आदत नही है

तुम सख्त-दिल निकले क्या शिकवा करें हम
शिकवा-ए-दिल लब पे लाने की आदत नही है।

कुछ देर पहले नींद से......

कल रात जाने क्या हुआ, 
कुछ देर पहले नींद से,
कुछ अश्क मिलने आ गए,
कुछ ख्वाब भी टूटे हुए,
कुछ लोग भी भूले हुए,
कुछ गर्द में लिपटे हुए। 

 कुछ बेपनाह पहेली हुई,
कुछ खोल में सिमटी हुई,
बेरब्त सी सोचें लिए 
भूली हुई बातें लिए,
इक शख्स की यादें लिए,
फिर देर तक जागते रहे। 

सोचों में गुम बैठे रहे,
ऊँगली से ठन्डे फर्श पर,
इक नाम बस लिखते रहे,
कल रात भी वो रात थी,
                                                   कुछ देर पहले नींद से,
                                                   हम देर तक रोते रहे। 

सवेरे जब आजानों की सदायें आने लगती हैं.....


सवेरे जब आजानों की सदायें आने लगती हैं 
हमारे घर में जन्नत की हवाएँ आने लगती हैं 

बुजुर्गों की इनायत का सहारा मिल गया मुझको 
जिधर से भी गुजरती हूँ दुआएँ आने लगती हैं 

जहाँ क़ुरान नही दिल में रसाले रखे जाते हैं 
ज़माने भर की उस घर में बालाएं आने लगती हैं 

                                                      मैं लड़की हूँ हया वाली अचानक चौंक पड़ती हूँ 
                                                      किसी की आहटें जब दायें बाएं आने लगती हैं 
                                                                                     - साभार दीपाली मेहता 

















फूल सी कोमलता रास न आयी तुझे 
और कांटो से कहा कि चुभना छोड़ दे
मेरा हँसना तो तुझे गवारा ना हुआ 
और कहती हो मुझसे कि रोना छोड़ दे !

ऐसी क्या खता हुई मुझसे 
कि तू अपने किये सारे वादे तोड़ दिए 
उन औरों पर इतना भरोसा कैसे 
जो अपनों से तेरा रिश्तों की गाठ खोल दे ! 

बददुआ भी दूँ तो कैसे 
एक ज़माने में तुझे पलकों पे बिठाया था 
हर उछलते दाग के सामने डाली थी चिलमन मैंने 
और अब कहती हो मुझे अकेला छोड़ दे !

मैं गुरेज़ क्या करता उसके साथ चलने से















मैं गुरेज क्या करता उस के साथ चलने से 
जख्म तो नहीं भरता रास्ते बदलने से 
इशरत शबाना तो यार की रज़ा से है 
ये ख़ुशी नहीं मिलती सिर्फ शाम ढलने से 
आरजू की चिंगारी कब तक सुलग सकती 
बुझ गया है दिल आखिर बार-बार जलने से 
ज़िन्दगी का हर मोहरा बेरुखी के रुख पर है 
ये बिसात क्या उलटेगी एक चाल चलने से 
डूबता हुआ सूरज क्या मुझे उजाले देगा 
मैं चमक उठू शायद चाँद के निकलने से