यही की थी मोहब्बत के सबक की इब्तदा मैंने !!














यही की थी मोहब्बत के सबक़ की इब्तदा मैंने,
यही की जुर्रत-ए-इज़हार-ए-हर्फ़-ए-मुद्दा मैंने,
यहीं देखे थे इश्क-ए-नाज़-ओ-अंदाज़-ए-हया मैंने,
यहीं पहले सुनी थी दिल धड़कने की सदा मैंने,
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी.

दिलों में इज्दहम-ए-आरज़ू लब बंद रहते थे,
नज़र से गुफ्तगू होती थी, दम उल्फ़त के भरते थे,
ना माथे पर सिकन होती , ना जब तेवर बदलते थे,
खुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे,
यही खेतो में पानी के किनारे याद है अब भी.

वो क्या आता के गया दौर में जाम-ए-शराब आता,
वो क्या आता रंगीली रागिनी रंगीन रबाब आता,
मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगीन सहाब आता, 
लबों के मय पिलाने झूमता मस्त-ए-शबाब आता, 
यहीं खेतों में पानी के किनारों याद है अब भी. 

हया के बोझ से जब हर क़दम पर लगाज़िशें होतीं, 
फजां में मुन्तसर रंगीन बदन के लाराज़िशें होतीं, 
रबाब-ए-दिल के तारों में मुसलसिल जुम्बिशें होतीं, 
खिफा-ए-राज़ के पुर्लुफ्त बहम कोशिशें होती, 
यही खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी, 

बाला-ए-फ़िक्र-ए-फर्दा हम से कोसों दूर होती थी, 
सुरूर-ए-सरमदी से जिंदगी मामूर होती थी, 
हमारी खिलवत-ए-मासूम रश्क-ए-तुर होती थी, 
मलक झुला झूलते थे ग़ज़ल-ख्वान हुर होती थी, 
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी. 

ना वो खेत बदली हैं न वो आब-ए-रवां बागी, 
मगर उस ऐश-ए-रफ्ता का है इक धुंधला निशान बागी. 
Poet of the Poem/Ghazal or Nazam: Makhdoom Mohiuddin

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