फूल सी कोमलता रास न आयी तुझे 
और कांटो से कहा कि चुभना छोड़ दे
मेरा हँसना तो तुझे गवारा ना हुआ 
और कहती हो मुझसे कि रोना छोड़ दे !

ऐसी क्या खता हुई मुझसे 
कि तू अपने किये सारे वादे तोड़ दिए 
उन औरों पर इतना भरोसा कैसे 
जो अपनों से तेरा रिश्तों की गाठ खोल दे ! 

बददुआ भी दूँ तो कैसे 
एक ज़माने में तुझे पलकों पे बिठाया था 
हर उछलते दाग के सामने डाली थी चिलमन मैंने 
और अब कहती हो मुझे अकेला छोड़ दे !

मैं गुरेज़ क्या करता उसके साथ चलने से















मैं गुरेज क्या करता उस के साथ चलने से 
जख्म तो नहीं भरता रास्ते बदलने से 
इशरत शबाना तो यार की रज़ा से है 
ये ख़ुशी नहीं मिलती सिर्फ शाम ढलने से 
आरजू की चिंगारी कब तक सुलग सकती 
बुझ गया है दिल आखिर बार-बार जलने से 
ज़िन्दगी का हर मोहरा बेरुखी के रुख पर है 
ये बिसात क्या उलटेगी एक चाल चलने से 
डूबता हुआ सूरज क्या मुझे उजाले देगा 
मैं चमक उठू शायद चाँद के निकलने से 









जागती रात के होठों पर फसाने जैसे 
एक पल में सिमट आये हों ज़माने जैसे 

अक्ल कहती है भुला दो जो नही मिल पाया 
दिल वो पागल के कोई बात ना माने जैसे 

रास्ते में वही मंज़र हैं पुराने अब तक 
बस कमी है तो नही लोग पुराने जैसे 

आइना देख कर एहसास होता है 
ले गया हो वक़्त उम्रों के खजाने जैसे 

रात की आँख से टपकता हुआ आंशु 
मखमली घास पे मोती के हो दाने जैसे 

बहके बहके हुए अंदाज़-ए-बयां होते हैं !!!!


बहके-बहके हुए अंदाज़-ए-बयां होते हैं 
आप होते हैं तो फिर होश कहाँ होते हैं 

होंठ पाबंद होते हैं निगाहें बयां होते हैं 
कोई समझे तो ये आंशु भी जुबान होते हैं 

याद है तेरी निगाहों का बदलना मुझको 
ऐसे अंदाज़ क़यामत में कहाँ होते हैं 

क्यूँ शब्-ए-ग़म ना जलाऊँ तेरी यादों के चिराग 
उस से रोशन मेरी मंजिल के निशां होते हैं 

ग़म है बाक़ी तो किसी रोज़ ख़ुशी भी होगी 
फूल भी ख़ाक के पहलु में जवां होते हैं 

क्या बात है जिसका गम बहुत है ?


क्या बात है जिसका गम बहुत है ?
कुछ दिन से ये आँख बहुत नम है 
मिल लेता हूँ गुफ्तगू की हद तक
इतना ही तेरा करम बहुत है 

घर आप ही जगमगा उठेगा
दहलीज़ पे एक कदम बहुत है

मिल जाये अगर रफ़ाक़त
मुझको तो यही जनम बहुत है

क्या शाम से हमें सवाल करना ?
होना तेरा सुबह शाम बहुत है

क्यूँ बुझने लगे चिराग मेरे ?
अब के तो हवा भी बहुत कम है

चुप क्यों तुझे लगी है परवीन ?
सुनते थे तुझमे रम बहुत है 

ज़वाब !



मैं जब खामोश रहता हु , तो सब घबरा से जाते हैं 
पूछते हैं क्या हुआ है, और जवाब चाहते हैं 
जब मैं झूठ कहता हु वो कन्धा थप-थपाते हैं 
जो सच कहता हूँ  तो अक्सर वो मुझसे रूठ जाते हैं 

काले और श्वेत के रंग में रंगा है सबका ये जीवन 
सही और गलत के बीच में होता नही कोई बंधन 
मगर ये कैसी उलझन है जहाँ मजबूर है ये मन 
न आंसू है न कोई मुस्कान, है बस एक अँधा पागलपन 

इस दुनिया को हरा कर मैं सिकंदर बन तो जाऊँगा 
हर एक मुश्किल को पार कर मैं शायद जी भी जाऊँगा 
मगर अपनों से लड़ने की ये हिम्मत मैं कहाँ से लाऊंगा 
है कमजोरी ये ऐसी मैं जो कभी न झेल पाऊंगा 

वफ़ा कर के ज़माने से ठोकर खायी है मैंने 
फिर भी हँसके ज़ालिम से नज़र मिलायी है मैंने 
पर अब जो मन दुखाया है मेरा बेरहमी से इसने 
हँसी के संग वो मुस्कान भी भुलायी है मैंने 

इस जीवन के पहलु को बहुत करीब से परखा है 
कभी रो रो के देखा है, कभी हस हस के झेला है 
उजाले में कभी आँखों को मूँद कर चला हूँ मैं 
अँधेरे में साये को खोते हुए हर बार देखा है  

तो जब तुम पूछते हो लब मेरे बंधे हुए क्यों हैं 
हँसी मेरी इरादों में कही गुमशुम हुए क्यों है 
मैं क्या बतलाऊं तुमको क्या मेरी आँखों की हसरत है 
हँसी का एक कारण ढूंढे है ग़मों में जब से डूबे हैं