हाल-ए-दिल !


टूटे हुए दिल का साज़ सुनाऊ तो कैसे 
ज़ख्मों पर अपने मलहम लगाऊं तो कैसे 
गुमराह रास्तों पर चलने की चाह तो बहुत है 
पर मंजिल की तरफ पहला कदम बढाऊं तो कैसे ?

रोम-रोम से उठी ये कराह सुनाऊ तो किसको 
दिल चीख उठा मेरा पर जताऊ तो किसको 
जी नही सकता और मर नही पाता
पर हाल-ए-दिल ये अपना बताऊ तो किसको ?

यूँ तो हर मोड़ पर मिल जाते हैं नये दोस्त मुझे 
हर पल भीड़ में घेरे रखते हैं वो मुझे 
क्यूँ फिर हर वक़्त अकेले रखते हैं वो मुझे 
क्यूँ फिर हर पल अकेला पड़ जाता हूँ मैं 
शायद खुद में ही मक़सूद हैं जो भूल जाते हैं मुझे 

दवा बे-असर, दुआ भी बेकार बन गयी 
रुसवा हुई यूँ जिंदगी की जैसे कहर बन गयी 
हाथ की लकीरों में धुंधला गयी यूँ किस्मत 
कसम खुदा की साँसे ज़हर बन गयी !

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