ख्वाब













ख्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है 
ऐसी तन्हाई है कि मर जाने को जी चाहता है 
घर के वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यों 
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है 
डूब जाऊं कोई मौज निशान तक ना बताए 
ऐसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है 
कभी मिल जाये तो रस्ते की थकान जग पड़े 
ऐसी मंजिल से गुजर जाने को जी चाहता है 
वो ही पैमान जो कभी जी को खुश आया था बहुत 
उसी पैमान से मुकर जाने को जी चाहता है 

Poet of the Poem / Ghazal or Nazam :Iftikhar Arif

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